वृक्ष हैं जल है,जल है तो जीवन है -कल है, और कल है तो हम हैं
मानव अपने अस्तित्व में आने के साथ ही प्रकृति प्रेमी रहा है और उसी पर आश्रित रहा है।वह वन्य जीवन ही व्यतीत करता था,सभी प्रकार के वन्य या प्राकृतिक उत्पादन ही उसकी जीविका के एकमात्र साधन थे।अनेक प्रकार के फल -फूल,तनें के साथ -साथ ऊर्जा और ईंधन के स्रोत भी वृक्ष ही थे।वर्तमान वैज्ञानिक युग में प्रगति के साथ ही अब मानव वनों या प्राकृतिक साधनों पर आश्रित नही रह गया है।परन्तु प्रदूषण की विकट समस्या से जूझ रहा है।मजे की बात यह है कि यह हमारे अपने द्वारा पैदा की गयी एक गंभीर समस्या है,जो हमारे खुद के जीवन के साथ ही समस्त प्राणियों के अस्तित्व के लिए खतरा बन गयी है।
वन वह व्यापक क्षेत्र कहलाता है जो पूर्णतः वृक्षों से आच्छादित हो तथा पर्यावरण सहित उस क्षेत्र की सम्पूर्ण जैविक क्षमता में सुधार करता हो।वृक्ष धरती मां के फेफड़े की तरह काम करते हैं।गर्मी में वृक्ष जल संरक्षण हेतु अपनी पत्तियों को गिरा देते हैं,ताकि वाष्पोत्सर्जन कम से कम हो।1927 में भारतीय अधिनियम पारित हुआ और स्वतंत्र भारत में 12 मई,1952 को ‘राष्ट्रीय वन नीति’ तैयार की गई।लेकिन केवल नीति बन जाने से कुछ नहीं हो सकता जब तक कि उसका जुड़ाव आम जन मानस से न हो सके।उत्तराखंड(उस समय उत्तर प्रदेश)में सुंदर लाल बहुगुणा द्वारा चलाया गया “चिपको आंदोलन”एक अनूठा अभियान था।वृक्ष प्रकृति की अनुपम कृति है जो प्रत्येक दृष्टिकोण से समस्त प्राणियों के लिए लाभदायक है,किन्तु हम अपने लाभ के लिए निरंतर वनों को काटते जा रहे हैं,जिससे हमारी भावी पीढ़ियों का भविष्य अंधकारमय होता जा रहा है।पेड़ों के अंधाधुंध कटाव के कारण हम शुद्ध वायु में सांस नहीं ले पा रहे हैं।कोरोना जैसी अनेक संक्रामक रोगों के शिकार होते जा रहे हैं।हम खुद अपने विनाश का कारण बनते जा रहे हैं।
महात्मा गांधी(1909) जी ने बिल्कुल स्पष्ट लिखा है कि प्रकृति हमारी जरूरतों को पूरा कर सकती है,लालच को नहीं।उन्हीं के समकालीन उर्दू शायर अल्लामा इकबाल(1907) ने उनसे पहले ही आगाह किया था कि पश्चिमी सभ्यता आत्मघाती है।उनका इशारा भौतिक दुष्परिणामों की तरफ भी था।इकबाल का मानना था कि इंसानी हवस और लालच का यह खतरनाक तरीका धरती को ही खा जाएगा।वे लिखते हैं:
तुम्हारी तहजीब अपने खंजर से आप ही खुदकुशी करेगी,
जो शाख – ए-नाजुक पे आशियाना बनेगा
नापाएदार होगा।
पूरी दुनियां के लोग तथाकथित ‘विकास’ का खामियाजा भुगत रहे हैं,प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के रूप में तथा पृथ्वी के विनष्ट हो जाने की आशंकाओं के रूप में।हम सभी खुद के बिछाए जाल में ही फंस से गए हैं,भौतिकता की चाह में नैतिकता ही नहीं जीवन को खोते हुए नजर आ रहे हैं।मानव जीवन तथा अन्य सभी प्राणियों का जीवन तभी सुरक्षित है जब हम वनों को और जलाशयों को संरक्षित रखें।वृक्ष हमारे लिए अत्यंत और जीवन पर्यंत उपयोगी हैं।इसकी जड़,तना, छाल, पत्ती सभी में औषधीय गुण विद्यमान हैं,जो हमारे जीवन रक्षा के काम आती हैं,में स्वयं अर्जुन की छाल का काढ़े के रूप में हृदय रोग से ग्रस्त होने के बाद से करता हूँ।अभी कोरोना काल में तुलसी,गिलोय,जराकुश के सेवन से बहुत लोग इसके प्रभाव में आने से बच गए,या उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ी।वृक्ष से ही फर्नीचर,खिड़की -दरवाजा, बेड,यातायात के साधनों में प्रयोग और तो और अंतिम यात्रा के समय देह से मुक्ति के लिए नौ मन लकड़ी की जरूरत पड़ती है।
हमें प्रकृति के साथ कदमताल करते हुए चलना होगा,बहुत कुछ खोया है उसे हासिल करना होगा।मानव मस्तिष्क अत्यंत प्रज्ञावान व जिज्ञासु है,बस उसे अपनी सोच में दृढता और सकारात्मकता लाना है कि हमें प्रकृति की रक्षा व संरक्षण करना है।वृक्ष हमारे नगर,ग्राम जीवन और परिवेश की शोभा ही नहीं बढ़ाते अपितु मृदा संरक्षण,जल संरक्षण,प्राकृतिक संतुलन को बनाये रखने में अपनी महती भूमिका निभाते हैं।हमें वृक्षों को अंधाधुंध कटने से रोकना है,जल स्रोतों को बचाना है,पानी का प्रयोग सूझ -बूझ के साथ करना है,प्राकृतिक जल स्रोतों पर अपनी निर्भरता बढ़ानी है,पर्यावरण के प्रति सकारात्मक सोच पैदा करनी है।।अंत में कवि की कुछ पंक्तियों को उध्दृत करना चाहूंगा:
सकारात्मक सोच संग उत्साह और उल्लास लिए,
जीतेंगे हर बाजी मन में यह विश्वास लिए।
लें संकल्प सृजन का मन में,उम्मीदों से हो भरपूर,
धुन के पक्के उस राही से,मंजिल है फिर कितनी दूर।
जगे ज्ञान और प्रेम धरा पर,गूंजे कुछ ऐसा संदेश,
नई चेतना से जागृत हों,सुप्त पड़ा हमारा यह देश।